सोमवार, 20 अप्रैल 2015

पिता......सब पिताओं के लिए

पिता मेरे
मैं अब तक नहीं समझ पाता हूँ
क्यों टूट जाते हैं तारे अचानक
आकाश गंगा को चमकता हुआ छोड़ कर
क्यों टूटता है वही तारा
जिसके इर्द-गिर्द हम बुन लेते हैं 
कितनी ही कहानियाँ और स्वप्न
उसे हम बरसों ध्रुव तारा समझते रहते हैं
झुलसता रहता है सूर्य किसी दूर के देश में
रात की चादर में सिसकती रहती है धरती
भुतहा-सा चाँद थर्राता है आकाश में
पूरा सौर मंडल चलने लगता है उल्टी गति से
और हम बिलखते हैं पूरी रात
बिना सुबह की प्रतीक्षा किए हुए
तुम्हारे चेहरे पर 
फैला है वही स्मित हास्य
बंद आँखों में 
अब भी मचल रहे होंगे सपने
निराशा और थकन का कोई निशान नहीं
माँ बार बार छू रही है तुम्हारे शरीर को
वह नहीं चाहती ज़मीन पर लेटे हुए
तुम्हें हो कोई पीड़ा
वह जानती है 
रहती है पीड़ा जब तक रहता है शरीर
कितनी देर लगती है उस व्यक्ति के स्नान में
जो नहा लेता था पल भर में
हम उन्हें जल से नहीं 
आँसुओं और स्मृति से नहला रहे हैं
हम उसे ले जा रहे हैं अंतिम यात्रा पर 
जिसने समाप्त करदी अपनी यात्रा
बिना किसी टिकिट कन्फर्मेशन के
किसी हठी यायावर की तरह 
बिना किसी पूर्व सूचना के 
यंत्रवत चल रहा हूँ मैं भी वैसे ही, 
जैसे चलते हैं आकाशगंगा में तारे
कंधे पर तुम्हारा बोझ लिए
पृथ्वी की तरह 
एक ओर थोड़ा-सा झुक गया हूँ 
यह जानते हुए
कि अभी मुझे घूमना होगा इसी सौर मंडल में
न जाने कितने और सौर वर्ष
तुम्हारी टिमटिमाहट के बिना
पिता मेरे
यूँ तो हरदम रहते हो तुम मेरे साथ
चिपके रहते हो मेरी आँखों की कोरों में
पर आज रो लेना चाहता हूँ 
किसी बरसाती नदी की तरह
जो नहीं बह सकती हर वक्त
आज रोना चाहता हूँ 
उन सब पिताओं के लिए 
जो तुम्हारी तरह निकल गए यात्राओं पर
बिना यह सोचे
कि बच्चे धुंधली देख पाते हैं दुनिया
आँखों में आँसू लिए हुए
बिना यह समझे
कि कितनी महसूस होगी तुम्हारी कमी
अपने बच्चों को दुलारते हुए
मैं अब तक नहीं समझ पाया हूँ
क्यों टूट जाते हैं तारे अचानक
आकाश गंगा को चमकता हुआ छोड़ कर
पिता मेरे
तुम क्यों नहीं बने सूर्य
कहते हैं सूर्य भी तो एक तारा ही है।



राजेश्वर वशिष्ठ

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

अकेले आना----------------


अकेले आना----------------
पहले ही पेड़ के नीचे छोड़ देना झोली
दूसरे के नीचे कमंडल रख देना
आगे भी बहुत पेड़ हैं, सामान भी बहुत
कुछ छोड़ देना, कुछ छूट जाएगा
जाने से पहले कहा फकीर ने--जो गया अकेला होकर---।

छोड़ देना पेड़ भी वहीं रास्‍ते पर
पहुंचने तक रखना रास्‍तों को
और साथ लिए हुए मत आना कोई रास्‍ता भी
अक्‍सर ि‍चपक जाते हैं रास्‍ते पैरों से बिना बताए------।

यात्राएं छूट जाती हैं अगर छूट जाए चलने का मोह
छोड़ आना यात्राएं पहले ही पड़ाव पर
पड़ाव पर ठहरे हुए पलों को वहीं से कर देना विदा
जहां पहली बार सोचा तुमने बची हुई यात्रा के बारे मेंं---।

नदी को किनारे पर छोड़ देना
किनारे छोड़ देना नदी के भरोसे
जो किनारों में बहे उसे नहीं होना होता कभी मुक्‍त
मुक्‍त होने की शर्त है किनारे तोड़ देना ----।

चहकते पंछी छोड़ देना, उड़ान भरते उनके पंख आसमान से बंधे हैं
हवाओं में बंधा हुआ है खुला सा दिखता आसमान
हवाओं को रहने देना वहीं, जो बंधी है सांसों में
अपनी सांसें छोड़ आना किसी बंधे हुए जीवन के लिए---।

अकेले का पथ है अकेले आना
अपने को साथ लेकर नहीं हो पाओगे अकेले
सावधान रहना, कामनाओं को छोड़ने का गर्व आ जाता हैे साथ
या कि अकेले के साथ हो लेता भय
अकेले आना---कहा था फकीर ने-- जो अकेला गया इस रास्‍ते से----।

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

ग़ज़ल....


सितारे हों बुलन्दी पर अक्सर यूं भी होता है 
लगी हो आग जब तब भी शरारे बात करते हैं।।

हो उनकी बात का मौसम कि उनकी आंख का जादू 
हमारा क्या अगर हंसकर इशारे बात करते हैं ।।

उफ़क की लाल आंखें हों कि शब का सांवला आंचल
कोर्इ हो वक्‍़त लेकिन ये नज़ारे बात करते हैं।।

हो मौजों की रवानी या भंवर की एक सरगोशी
निकल कर झील से फिर ये शिकारे बात करते हैं।।

लकीरें साथ गर देदें तो साहिल साथ चलता है
घिरा हो लाख तूफां पर किनारे बात करते हैं।।

अनुजा

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

उससे मिलने के बाद...

बरसों के बाद मिली वो एक स्‍त्री....
उससे मिलने के बाद...
(1)
उसने चुना था....
घर......
पति....
बच्‍चे.....
और
एक हरियाली दुनिया....
और
छोड़ी थी उसने
इस संसार के लिए.....
अपनी सबसे खूबसूरत ख्‍वाहिश.....
और
अपने सबसे मीठे और सुरीले गले का साथ.....।
(2)
एक स्‍त्री रम गयी है
जि़न्‍दगी के उस सुहाने सफ़र में.....
जो उसने चुना था
अपने लिए...
ख़ुश है एक स्‍त्री
कि
वह जो चाहती थी
उसने
वो पाया....
खुश है एक स्‍त्री
कि
उसने अपने को खो कर
पाया है
एक सुन्‍दर घर....
प्‍यारे से बच्‍चे....
और
लंबा इंवेस्‍टमेंट प्‍लान....
पोते-पोतियों के साथ खेलने का.....।
खुश है एक स्‍त्री
कि
इसमें कहीं भी नहीं है टकराहट
उसके अस्तित्‍व की.....
नहीं है चुनौती कोई
अपनी अस्मिता को सहेज पाने की.....
खुश है एक स्‍त्री
कि
उसने वो पाया
जो
चुना था उसने अपने लिए.....।

अनुजा
22.09.13

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

वह...

आदमी ने उसे घर दिया...
रहने के लिए...
रसोई दी....
खाना पकाने के लिए...
गुसलखाना दिया
नहाने के लिए....
छत दी...
केशों को सुखाने के लिए...
सोने का कमरा दिया
बिस्‍तर दिया
बच्‍चे दिए....
बिना उससे पूछे..
जि़न्‍दगी दी...
जीने के लिए....
सब कुछ
बिना उससे पूछे....
बिना यह जाने
कि
वह क्‍या चा‍‍हती है...
कैसे चाहती है...
रहना चा‍हती है...
उड़ना चाहती है...
या
सोना चाहती है....
जीना चा‍हती है..
या
मर जाना चाहती है.....।
अनुजा
31.01.14

रविवार, 5 अप्रैल 2015

वैरागी संसारी के डायरी अंश.....




जुदाई का हर निर्णय संपूर्ण और अंतिम होना चाहिए, पीछे छोड़े हुए सब स्‍मृतिचिन्‍हों को मिटा देना चाहिए, और पुलों को नष्‍ट कर देना चाहिए, किसी भ्‍ाी तरह की वापसी को असंभव बनाने के लिए।

हर पीड़ायुक्‍त निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए हमें उसे दैनिक जीवन का स्‍वाभाविक अंग बनाना होगा । तभी हम उसे भूल सकते हैं जिसे हमने खो दिया है।

वह थकान- इसके नीचे लेट जाना चाहिए, इसकी घनी छाया के नीचे जहां विरक्ति की अलमस्‍त लहर घेर लेती है...पीड़ा, इच्‍छा, उम्‍मीद का वह पत्‍ता कहां गया, क्‍या शून्‍यता से टकराकर झर गया...या वह अब भी वहीं है, निश्‍चल, शांत, आंखों से आेझल ?

एक जि़ंदगी जो बीच में कट जाती है अपने में संपूर्ण है । उसके आगे का समय उसके साथ ही मर जाता है, जैसे उम्र की रेखा- वह चाहे कितनी ही लंबी क्‍यों न हो- म़त हथेली पर मुरझाने लगती है । क्‍या रिश्‍तों के साथ भी ऐसा होता है जो बीच में टूट जाते हैं ?  हम विगत के बारे में सोचते हुए पछताते हैं कि उसे बचाया जा सकता था, बिना यह जाने कि स्‍मृतियां उसे बचा नहीं सकती़, जो बीत गया । मरे हुए रिश्‍ते पर उसी तरह रेंगने लगती हैं, जैसे शव पर च्‍यूंटियां । दो चरम बिंदुओं के बीच झूलता हुआ आदमी । क्‍या उन्‍हें  (बिंदुओं का) नाम दिया जा सकता है? दोनों के बीच जो है, वह सत्‍य नहीं पीड़ा है । वह एक अर्धसत्‍य और दूसरे अर्धसत्‍य के बीच पेंडुलम की तरह डोलता है, उन्‍हें संपूर्ण पाने के लिए, लेकिन अपने गति में- जो उसकी आदिम अवस्‍था है- हमे शा अपूर्ण रहता है ।

अब कुछ भी नहीं है, उतना भी नहीं, जिसमें अपने न होने को समर्पित किया जा सकेा जब कुछ भी नहीं रहेगा तो शून्‍यता का स्‍वच्‍छ बोध भी, जो हमेशा भीतर रहता था, हमारा साथ छोड़ देता हैा

लेकिन जब कुछ भ्‍ाी नहीं रहता, तो मैं कुछ भी हो सकता हूं- एक वृक्ष, एक पत्‍ता , एक पत्‍थर। और यह ख्‍ा़याल कि हम 'कुछ नहीं' से भी कम हो सकते है, मृत से अधिक मृत- एक गहरी सांत्‍वना देता है, जैसे बचपन में, बीमारी की रात, मां का हाथ अंधेरे में सहलाता है.....जिस दिन मैं अपने अकेलेपन का सामना कर पाउंगा- बिना किसी आशा के- ठीक तब मेरे लिए आशा होगी कि मैं अकेलेपन को जी सकूं।

-निर्मल वर्मा