रविवार, 6 अक्तूबर 2013

सन्‍नाटा....

फोटो: आर.सुन्‍दर (C)
तुमने
ये कैसा सन्नाटा बोया है.......
चारों तरफ
बस धुंधलाती दिशाएं हैं
और टूटकर बिखरते फूल.....
तुमने ये कैसा सन्नाटा खींचा है.....
कि कैनवास की रेत पर रुकता ही नहीं कोर्इ रंग......
तुमने ये कैसा सन्नाटा बोला है.......
सन्नाटा...!
जिसमें गूंजता है बस
खामोशी का एक लम्हा
और
चुप्पी का एक मौसम.......!

कितनी भारी है ये खामोशी
उन आंधियों से.....
जब
टूटती थीं शिलाएं......
और
भागते थे दरिया......
बस अपनी ही रौ में.....
दौड़ती थीं लहरें
पांवों को छूने
और छूकर लौट जाने के लिए......
रेत के लहराते सपनों पर
रचा है तुमने
ये कैसा सन्नाटा........!

यहां न सितारे हैं.....
न चांद...
न निरभ्र आकाश.....
ना बादलों का ओर छोर छूते
चहचहाते पंछी.....
बस एक चमकीली नीलिमा
के साये तले
बिखरी हुर्इ उजड़ी सी हरीतिमा के आगोश में......

छीजता है एक गहरा सन्नाटा........!


अनुजा
23.04.07

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